यह राजेश खन्ना - किशोर की जुगलबन्दी के आख़िरी गीतों में से एक-
ये गीत आर0डी0बर्मन की एक दुर्लभ प्रस्तुति है-
ये है किशोर'दा का एक गीत फ़िल्म माँ के लिए जो 1960 में बन रही थी और अधूरी रह गयी - यानी रिलीज़ नहीं हुई-
बहानेबाज़ी की भी कोई हद होती है? या गिनती होती है? अभी तो दस कहा है, देखिए कितने बहाने सामने आते हैं
Twit-Bits
Saturday, September 4, 2010
Thursday, August 26, 2010
बाबुल और नैहर की यादें
बिटिया की विदाई एक ऐसा भावुकता भरा क्षण है जो हमारे देस-गाँव की थाती से उमड़ कर हिन्दी फ़िल्मों पर झक्काझोर बरसता रहा है - बरसती आँखों की तरह। इस सावन-भादों बरसात का गहरा रिश्ता जुड़ चुका है दिल से। सावन में वैसे भी बिटियों को झूलों की पेंगे याद दिला जाती हैं मायके की, सखियों की और बाबुल की। सावन की फ़ुहार से हरियाली के साथ ही साथ कुछ ऐसा उगने लगता है मन में - जो बाबुल-बाबुल पुकारता है। मेरी बेटी अभी पढ़ रही है, मगर सावन अब मुझे भी बेचैन करने लगा है - उसके "अपने" घर जाने के बारे में सोचने का वक़्त हर बीतते बरस के साथ और क़रीब आता जा रहा है…
ऐसे में कुछ अपने पसन्दीदा फ़िल्मी गीत - हिन्दी फ़िल्मों से बटोर लाया हूँ यू-ट्यूब के सौजन्य से, और इन्हें आप सबसे साझा कर रहा हूँ। यह श्रृंखला गीतों की - आज मेरे 'मूड' में इसी गीत से शुरू हुई थी, सो सबसे पहले देखिए यह श्वेत-श्याम गीत - सावन की टीस और आशाएँ - एक बिटिया की ज़बानी…
फिर याद आई ये बात कि बेटी कैसे बाबुल से अपना लगाव ज़ाहिर करती है - उसे पुकारते हुए भी…
और उसे ढाढ़स बँधाते हुए भी - कि पिता उसके बारे में इतना चिन्तित न हों - मगर पिता को ढाढ़स मिल पाता है क्या?
बाबुल तो सिर्फ़ दुआ ही करता रहता है - दिन-रात, सोते-जागते, हर साँस के साथ-साथ…
वहीं दूसरी तरफ़ यह शादी-ब्याह का अवसर एक मांगलिक उत्सव होता है - सो सारे घरवाले इसमें शामिल होते हैं - अपनी-अपनी दुआओं और हसरतों-हौसलों के साथ - कि शादी में ये करेंगे-वो करेंगे -ऐसे सजाएँगे घर को-दुल्हन को - ये-ये भेंट देंगे…
और भाई का तो बहुत ज़्यादा लगाव होता भी है बहन से- क्योंकि उसे भी छोटा बाबुल ही समझिए - सारी ज़िम्मेदारियाँ जब उठाता है बेटा अपने पिता की - तो साथ ही बहन के मायके से रिश्ते की भी डोर वही थामता है…
बिटिया-बहन ऐसे में कुछ सपने भी सजाती है - और दर्द भी सहेजती है…
बहन को भाई ही ये समझाता भी है कि…
उधर बिटिया भी यह तो जानती ही है कि उसे "अपने" घर जाना ही है - रीत जो है समाज की - तो उसके भी दिल में सपने बुने जाने लगते हैं और छाने लगता है रूमान। अब ऐसे में अगर कोई जाना-पहचाना हो - जिससे कुछ लगाव हो जाए तो शायद मायके से जाने में कुछ आसानी रहे…
मगर कभी-कभार यूँ भी होता है कि अनजाने सपनों के राजकुमार का सपना देखती आँखें आस-पास के हमदर्दों को नज़रअन्दाज़ कर बैठती हैं - उनके लगाव और उनके अपनेपन के साथ-साथ। उम्मीदों भरे सपने सँजोती पलकें अपनी आशाओं को उनसे बाँटती ज़रूर हैं - मगर उनकी कसक - उनका लगाव पहचाने बिना ही। ऐसे में ही संवेदनशीलता की चूक होती है और फिर तो यह बात यहाँ तक बढ़ जाती है कि अपने नए सफ़र पर निकलने से पहले बचपन के दोस्तों को यह ताक़ीद की जाती है कि…
कभी ये भी कह उठती हैं बेटियाँ कि…
मगर अक्सर तो सखी-सहेलियों से भी मायका छोड़ने की बातें बड़े उत्साह से और ख़ुशी से होती हैं कि देखो अब यह मौक़ा भी आने ही वाला है…
नई-नई ख़ुशियों के बीच अगर बेटी के दुल्हन बनने के बाद उसका जीवन हँसी-ख़ुशी बीते तो कहना ही क्या! और अगर बेटी के मुँह से निकली ऐसी बातें सुनने को मिलें किसी संदेशवाहक की ज़बानी या नाते-रिश्तेदारों से कि…
तब तो बड़ा ही सुकून मिलता है माँ-बाप को।
मगर यह तो बाद की बात है न! पहले तो बारात आती है - बड़े उत्साह के साथ और डोली लाती है। जहाँ एक तरफ़ डोली दिलों में हलचल मचाती है…
और यूँ भी…
फिर शादी तो बहुत व्यस्तता और ख़ुशियों में बीत जाती है - सिर्फ़ चन्द घण्टों में बेटी पराई हो जाती है। जिस अवसर की तैयारी महीनों - बल्कि मानसिक तौर पर और अक्सर आर्थिक तौर पर भी - बरसों की जाती है, वह बीतता है चन्द घण्टों में और फिर कुछ रस्में…
और फिर कुछ ही देर में डोली…
और तब ज़रूर बड़ी शिद्दत से अहसास होता है लड़कियों को - कि अब…
और फिर आता है मौक़ा विदाई का…
चाहे कितना ही हूक उठे कलेजे में - कितना ही हिलक लो - सिसक लो - आख़िर तो सजन घर जाना ही है!
और सजन घर जाना है तो उसमें एक दर्द है - तो एक ख़ुशी भी है…
फिर तो कुछ भी हो - अब नए रिश्ते जुड़े हैं - जो निभाने भी हैं और सहेजने भी - मगर तसल्ली सिर्फ़ यही होती है कि नए रिश्ते जुड़ने का मतलब यह नहीं कि पुराने टूट गए। पुराने तो हैं ही अपने साथ, बीरन भी और बाबुल भी!
ये सब हालात भले ही फ़िल्मी होने से थोड़ा अतिरंजित दिख रहे हों - सच यही है कि वास्तविक निजी हक़ीक़त भी कभी ऐसी होती ज़रूर थी, अब भी होती है - मगर सिर्फ़ आत्मीय जनों के लिए। बदलते वक़्त की व्यस्तताओं की भेंट चढ़ चुके इस दौर के ज़्यादातर रिश्ते काग़ज़ी हैं - वक़्त की कमी के मोहताज - जहाँ आँसू बहाना असंस्कृत होना समझा जाने लगा है - शादियाँ भी "डिज़ाइनर" व "कस्टमाइज़्ड" और "थीम बेस्ड" होने लगी हैं। आपको किस पोशाक़ में आना है - यह भी निर्देशित रहता है - तो इसीलिए इन हालात का वीडियो अगर बाद में देखा जाय - ख़ासकर उत्तर प्रदेश के पूर्वाञ्चल में तो राजू श्रीवास्तव का नज़रिया बहुत हद तक सही मालूम पड़ता है…
विदा का माहौल तो हमेशा ही भारी ही होता है, और अब इस पोस्ट से विदा लेने का भी वक़्त आ गया है, तो बाद में ये भारी माहौल न तारी रहे ज़ेहन पर - इसीलिए हल्के मन से प्रसन्न हो कर विदा लें, ऐसी कामना फलित करने में राजू श्रीवास्तव जी के इस वीडियो ने सहयोग किया।
-----------------------------------------------------------------------------------
यूट्यूब और यूट्यूब पर सभी संबन्धित वीडियो अपलोड करने वालों के प्रति आभार सहित, सादर-सस्नेह!
ऐसे में कुछ अपने पसन्दीदा फ़िल्मी गीत - हिन्दी फ़िल्मों से बटोर लाया हूँ यू-ट्यूब के सौजन्य से, और इन्हें आप सबसे साझा कर रहा हूँ। यह श्रृंखला गीतों की - आज मेरे 'मूड' में इसी गीत से शुरू हुई थी, सो सबसे पहले देखिए यह श्वेत-श्याम गीत - सावन की टीस और आशाएँ - एक बिटिया की ज़बानी…
फिर याद आई ये बात कि बेटी कैसे बाबुल से अपना लगाव ज़ाहिर करती है - उसे पुकारते हुए भी…
और उसे ढाढ़स बँधाते हुए भी - कि पिता उसके बारे में इतना चिन्तित न हों - मगर पिता को ढाढ़स मिल पाता है क्या?
बाबुल तो सिर्फ़ दुआ ही करता रहता है - दिन-रात, सोते-जागते, हर साँस के साथ-साथ…
वहीं दूसरी तरफ़ यह शादी-ब्याह का अवसर एक मांगलिक उत्सव होता है - सो सारे घरवाले इसमें शामिल होते हैं - अपनी-अपनी दुआओं और हसरतों-हौसलों के साथ - कि शादी में ये करेंगे-वो करेंगे -ऐसे सजाएँगे घर को-दुल्हन को - ये-ये भेंट देंगे…
और भाई का तो बहुत ज़्यादा लगाव होता भी है बहन से- क्योंकि उसे भी छोटा बाबुल ही समझिए - सारी ज़िम्मेदारियाँ जब उठाता है बेटा अपने पिता की - तो साथ ही बहन के मायके से रिश्ते की भी डोर वही थामता है…
बिटिया-बहन ऐसे में कुछ सपने भी सजाती है - और दर्द भी सहेजती है…
बहन को भाई ही ये समझाता भी है कि…
उधर बिटिया भी यह तो जानती ही है कि उसे "अपने" घर जाना ही है - रीत जो है समाज की - तो उसके भी दिल में सपने बुने जाने लगते हैं और छाने लगता है रूमान। अब ऐसे में अगर कोई जाना-पहचाना हो - जिससे कुछ लगाव हो जाए तो शायद मायके से जाने में कुछ आसानी रहे…
मगर कभी-कभार यूँ भी होता है कि अनजाने सपनों के राजकुमार का सपना देखती आँखें आस-पास के हमदर्दों को नज़रअन्दाज़ कर बैठती हैं - उनके लगाव और उनके अपनेपन के साथ-साथ। उम्मीदों भरे सपने सँजोती पलकें अपनी आशाओं को उनसे बाँटती ज़रूर हैं - मगर उनकी कसक - उनका लगाव पहचाने बिना ही। ऐसे में ही संवेदनशीलता की चूक होती है और फिर तो यह बात यहाँ तक बढ़ जाती है कि अपने नए सफ़र पर निकलने से पहले बचपन के दोस्तों को यह ताक़ीद की जाती है कि…
कभी ये भी कह उठती हैं बेटियाँ कि…
मगर अक्सर तो सखी-सहेलियों से भी मायका छोड़ने की बातें बड़े उत्साह से और ख़ुशी से होती हैं कि देखो अब यह मौक़ा भी आने ही वाला है…
नई-नई ख़ुशियों के बीच अगर बेटी के दुल्हन बनने के बाद उसका जीवन हँसी-ख़ुशी बीते तो कहना ही क्या! और अगर बेटी के मुँह से निकली ऐसी बातें सुनने को मिलें किसी संदेशवाहक की ज़बानी या नाते-रिश्तेदारों से कि…
तब तो बड़ा ही सुकून मिलता है माँ-बाप को।
मगर यह तो बाद की बात है न! पहले तो बारात आती है - बड़े उत्साह के साथ और डोली लाती है। जहाँ एक तरफ़ डोली दिलों में हलचल मचाती है…
और यूँ भी…
फिर शादी तो बहुत व्यस्तता और ख़ुशियों में बीत जाती है - सिर्फ़ चन्द घण्टों में बेटी पराई हो जाती है। जिस अवसर की तैयारी महीनों - बल्कि मानसिक तौर पर और अक्सर आर्थिक तौर पर भी - बरसों की जाती है, वह बीतता है चन्द घण्टों में और फिर कुछ रस्में…
और फिर कुछ ही देर में डोली…
और तब ज़रूर बड़ी शिद्दत से अहसास होता है लड़कियों को - कि अब…
और फिर आता है मौक़ा विदाई का…
चाहे कितना ही हूक उठे कलेजे में - कितना ही हिलक लो - सिसक लो - आख़िर तो सजन घर जाना ही है!
और सजन घर जाना है तो उसमें एक दर्द है - तो एक ख़ुशी भी है…
फिर तो कुछ भी हो - अब नए रिश्ते जुड़े हैं - जो निभाने भी हैं और सहेजने भी - मगर तसल्ली सिर्फ़ यही होती है कि नए रिश्ते जुड़ने का मतलब यह नहीं कि पुराने टूट गए। पुराने तो हैं ही अपने साथ, बीरन भी और बाबुल भी!
ये सब हालात भले ही फ़िल्मी होने से थोड़ा अतिरंजित दिख रहे हों - सच यही है कि वास्तविक निजी हक़ीक़त भी कभी ऐसी होती ज़रूर थी, अब भी होती है - मगर सिर्फ़ आत्मीय जनों के लिए। बदलते वक़्त की व्यस्तताओं की भेंट चढ़ चुके इस दौर के ज़्यादातर रिश्ते काग़ज़ी हैं - वक़्त की कमी के मोहताज - जहाँ आँसू बहाना असंस्कृत होना समझा जाने लगा है - शादियाँ भी "डिज़ाइनर" व "कस्टमाइज़्ड" और "थीम बेस्ड" होने लगी हैं। आपको किस पोशाक़ में आना है - यह भी निर्देशित रहता है - तो इसीलिए इन हालात का वीडियो अगर बाद में देखा जाय - ख़ासकर उत्तर प्रदेश के पूर्वाञ्चल में तो राजू श्रीवास्तव का नज़रिया बहुत हद तक सही मालूम पड़ता है…
विदा का माहौल तो हमेशा ही भारी ही होता है, और अब इस पोस्ट से विदा लेने का भी वक़्त आ गया है, तो बाद में ये भारी माहौल न तारी रहे ज़ेहन पर - इसीलिए हल्के मन से प्रसन्न हो कर विदा लें, ऐसी कामना फलित करने में राजू श्रीवास्तव जी के इस वीडियो ने सहयोग किया।
-----------------------------------------------------------------------------------
यूट्यूब और यूट्यूब पर सभी संबन्धित वीडियो अपलोड करने वालों के प्रति आभार सहित, सादर-सस्नेह!
Wednesday, August 25, 2010
आके सीधी लगे दिल पे - हाफ़ टिकट
और यह युगल गीत प्रस्तुत है फ़िल्म हाफ़ टिकट से - किशोर कुमार और किशोर कुमार के स्वरों में…
Monday, August 23, 2010
तुम अगर साथ देने का वादा करो…उम्दा लिरिक्स
बचपन में सुना था - आज भी बेहद ताज़गी भरा रूमानी गीत लगता है ये - बस सुनाई कम देता है।
Thursday, August 19, 2010
Monday, August 16, 2010
तेरे घर आया - मैं आया तुझको लेने
सलमान की ताज़गी भरी सुखद अतिथि भूमिका थी इस केकेएचएच में।
सभी सितारों के अपने-अपने कुछ ख़ास मूवमेण्ट्स हैं - जिन्हें करना उन्हें आसान लगता होगा शायद। इस गीत में वो मूव्स किए हैं सलमान ने जो उनके ट्रेड-मार्क नहीं थे, बल्कि शाहरुख़ के मूव्ज़ से ज़्यादा मिलते-जुलते हैं - जिनमें पैरों को झुलाने के प्रयोग अधिक होते हैं।
आगे चलकर इससे मिलते जुलते मूव्ज़ अपनाए सलमान ने भी - और अभी भी अपने कई गानों में उन्हें इन मूव्ज़ पर नाचते देखा जा सकता है।
ख़ैर, यहाँ तो सिर्फ़ यह कहना है कि पूरे कपड़ों में सलमान को नाचते देखना एक अलग तरह का सुखद अनुभव है।
;)
नहीं?
सभी सितारों के अपने-अपने कुछ ख़ास मूवमेण्ट्स हैं - जिन्हें करना उन्हें आसान लगता होगा शायद। इस गीत में वो मूव्स किए हैं सलमान ने जो उनके ट्रेड-मार्क नहीं थे, बल्कि शाहरुख़ के मूव्ज़ से ज़्यादा मिलते-जुलते हैं - जिनमें पैरों को झुलाने के प्रयोग अधिक होते हैं।
आगे चलकर इससे मिलते जुलते मूव्ज़ अपनाए सलमान ने भी - और अभी भी अपने कई गानों में उन्हें इन मूव्ज़ पर नाचते देखा जा सकता है।
ख़ैर, यहाँ तो सिर्फ़ यह कहना है कि पूरे कपड़ों में सलमान को नाचते देखना एक अलग तरह का सुखद अनुभव है।
;)
नहीं?
Saturday, August 14, 2010
ओ माँझी रे....!
गुलज़ार - किशोर - आरडीबर्मन
एक और जादुई गीत मेरी पसंद का...
एक और जादुई गीत मेरी पसंद का...
Wednesday, August 11, 2010
आइगा-आइगा, आइगा ये क्या हो गया…!
श्वेत-श्याम चित्रपट के दौर से ही एक खिलन्दड़ा गीत - ब्वायफ़्रेण्ड फ़िल्म से - शम्मी कपूर के खिलन्दड़ेपन भरी मस्ती और मधुबाला की चंचलता में डूबी सुन्दरता के साथ …
जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला...
तो आज इस दुर्लभ संगीतमय प्रस्तुति का मज़ा लीजिए - ये तब की बात है जब फ़िल्मी गानों में साहित्य हुआ करता था और फिल्मों में आत्मा. अभी भी होता है - मगर सबमें नहीं, और इस बात पर मैं शाहरुख खान से सहमत हूं.
Tuesday, August 10, 2010
मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार, ओ रे माँझी… - बन्दिनी
Monday, August 2, 2010
आजा तुझको पुकारे मेरे गीत रे…(गीत)
राजेन्द्र कुमार - जुबिली की श्रृंखला में से एक संगीतमय याद…
Saturday, July 31, 2010
के आजा तेरीऽऽऽ… याद आई
"दिल इनसान का एक तराज़ू - जो इनसाफ़ को तोले
प्रीत बिना ये जीवन सूना - ये पागल प्रेमी बोले…"
क्या आप जानते हैं इस गायक का नाम? जिन्होंने ये शुरूआती पंक्तियाँ गाई हैं - पृष्ठभूमि में - बैकग्राउण्ड में - रफ़ी साहब और लता जी की आवाज़ में धरमजी-हेमाजी के लिये गीत शुरू होने से पहले। अगर ये जवाब कोई दे ले गया तो ठीक - वर्ना एक और आसान सवाल इसके नीचे अगले गीत के साथ
प्रीत बिना ये जीवन सूना - ये पागल प्रेमी बोले…"
क्या आप जानते हैं इस गायक का नाम? जिन्होंने ये शुरूआती पंक्तियाँ गाई हैं - पृष्ठभूमि में - बैकग्राउण्ड में - रफ़ी साहब और लता जी की आवाज़ में धरमजी-हेमाजी के लिये गीत शुरू होने से पहले। अगर ये जवाब कोई दे ले गया तो ठीक - वर्ना एक और आसान सवाल इसके नीचे अगले गीत के साथ
Thursday, July 29, 2010
हर दिल जो प्यार करेगा…
आज बिना भूमिका - बिना उपसंहार : मज़ा लीजिए इस पुराने गीत का…
Saturday, July 24, 2010
जप रे प्रीत की माला - शारदा फिल्म से राज कपूर और मीना कुमारी
बिना किसी लंबी भूमिका के - आनंद उठाइए इस गाने का - पुराने गानों में से अपनी स्टाइल का मजाकिया गाना.
Thursday, July 22, 2010
खिलते हैं गुल यहाँ : Khilte Hai Gul Yahan
Another Kishore'Da song, very close to my heart. The superb combination of Kishore Kumar singing lyrics by NEERAJ (Gopal Das Neeraj, the famous hindi Stage-Poet) under superb composition of Sachin Dev Burman. These were the times when RD had started actively and remarkably contributing to his father's melodious creations.
The film was SHARMILEE - released in 1971, featuring a much too young, glamorous and slim (to the extent possible for her) "Rakhee" who later became "Rakhee Gulzar" in Double Role. Later on Rakhee matured into such a great body (pun intended) that she looked double, even when acting in a single role.
Shashi Kapoor was the male lead, an army-man with the talent for penning such beautiful songs (reminds me of Gautam Rajrishi)
Neeraj was at his prime during the period. Some of his tops belong to "Prem Pujari" and "Sharmilee". Look the way he plays an excellent host! Listening Gautam?
Dev Anand preferred Neeraj's Pen for quite a long spell. He could afford, being more than just the Hero (or Actor). Neeraj specialises in giving meaingful philosophical messages alongwith the romantic love-song, without being heavy on the ears, the heart or the Mahaul - for even a moment!
So does he accomplish here.
I like the silkiness woven by the words that Neeraj uses, the entire nature is personified; Lakes sing - Flowers have a heart.
The environment of surroundings has wonderful linkage to the heart and soul of a typical middle-class medieval Indian - admirimg the bountiful beauty of nature, with the heart aching for the beloved, helplessly witnessing the time slipping from the clutches, never to return...
Kishore'Da has rendered it the way no-one else could. Rafi Sahib was great, but this song required the manly, yet romantic-silky-smooth voice of Kishore Kumar only!
You listen it with lights off, on a moon-lit night, when your "Woh" is with you...
And a beautiful - gloomy yet romantic and sweet sadness will encompass the air, in particular if you listen to it from a distance...
On the roof, looking at the stars, cool night breeze slowly and slowly... with the clouds on the sky, but not the rains!
The Song becomes still more potent and deadlier during the Feb-March period - the Spring with the fragrances in the air making you feel the presence of Cupid, the ever elusive...
Wednesday, July 21, 2010
यादें : बचपन (1)
बचपन में यह गाना ख़ूब सुनाई पड़ता था मेले-ठेले में। इलाहाबाद में - दशहरे के मेले में - रामदल की चौकियाँ निकलते समय, कानपुर में - दशहरे पर, चौपही के मेले में -सावन के मेले में - होली पर, मेरठ में दीवाली पर और इटावा में नुमाइश के वक़्त। अलीगढ़ में भी नुमाइश का ही हिस्सा होता था ये गाना। लगता है अपनी छेड़ के कारण यह काफ़ी समय तक शोहदों का - और इसलिए भीड़ का पसंदीदा गाना बना रहा। पसन्द और भी नौजवान होते या हो चले या हो चुके दिलों को आता था, मगर अपनी शराफ़त के लिबास में सल्वटें न पड़ने देने की ख़्वाहिश में ताब न थी क़बूल करने की लोगों को। हमें क्या - हम तो माने भी ठीक से नहीं समझते थे गाने का - और बच्चे थे ही - सो गाते थे (गाते क्या - चिल्लाते थे) और पिट जाते थे।
जब भूल जाते थे पिटाई - तो फिर चिल्लाने लगते थे - मैंने इक लड़की पसन्द कर ली।
मिज़ाज अपना लड़कपन से आशिक़ाना था।
पहला गाना जो हमारे लबों पे सजा - वो था - "मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू"
उसे पहले ही प्रायोगिक तौर पर नीचे चिपका चुके हैं।
फिल्म वगैरह देखने का चलन कम था तब। रेडियो पर भी सिर्फ़ ख़बरें सुनी जाती थीं। आस-पड़ोस के लोग इकट्ठा होते थे पौने नौ बजे-समाचार सुनने - देवकीनन्दन पाण्डेय से या और भी बहुत से नाम रहे होंगे।
रेडियो के तिलिस्म पर फिर कभी…
हमने ये गाना "मेरे सपनों की रानी…" पहली बार सुना जब फ़िल्म देखी - अपने मामाजी के साथ - कानपुर के हरकोर्ट बटलर…यानी एचबीटीआई में। ज़ाहिर है कि फ़िल्म तब तक इस लायक़ हो चुकी थी कि सिनेमा-घरों से उतरा हुआ प्रिण्ट मिल जाए - कॉलेजों के हॉस्टेलों और ऑडिटोरियमों में चलाने के लिए - उन कॉलेजों की सीमित धनराशि में। यानी फ़िल्म पुरानी हो चली होगी - मगर हमारे लिए पहला अनुभव था। लौटे तो - बस लहट गए राजेश खन्ना के ऊपर। बाद में जान पाए कि हम लहटे थे किशोरकुमार पर, समझ रहे थे कि राजेश खन्ना ही हैं - क्योंकि देखने में तो यही लगता था न कि वही गा रहे हैं!
बस ऐसे ही रपट गए मेले में ये गाना सुनकर - घर पर जब मौक़ा मिले - यही गाना गाने - सॉरी, चिल्लाने लगते थे और ख़ूब पिटे - बार-बार पिटे, मगर अब तक नहीं भूले कि क्या मस्त गाना था ये! अब भी कहीं सुनाई दे जाय तो रपट जाते हैं। अब यूट्यूब से लिंक दिया है - कॉपीराइट वगैरह का पता नहीं - मगर क्या है - थोड़ा और पीट ले जिसे कुछ नागवार गुज़रे - हम तो भैया रपटे - और अब चिल्लाएँगे ज़रूर।
रपटना है? तो आइए…क्लिक कर के देख-सुन लीजिए।
Location:
Allahabad, Uttar Pradesh, India
Sunday, July 18, 2010
Friday, March 26, 2010
बाघ के बहाने (1411 ही बचे हैं, बस!)
1411 बचे हुए बाघों की दुहाई देकर कहा जा रहा है कि बाघों के बारे में कुछ भी कर के, मेल भेज कर, ब्लॉग लिख कर, फ़ोटोशूट में हिस्सा लेकर…आप सहयोग दे सकते हैं बाघों को बचाने में।
बचाना किससे है, पता ही है - आदमी से। अब आदमी से कौन किसको बचा सकता है ?
आदमी से जंगल नहीं बचे। न बचे जंगली।
पहाड़ नहीं बचे आदमी से। खोद डाले।
आदमी से सागर नहीं बचे। मछलियाँ मर रही हैं, कछुए मर रहे हैं। अन्य जल-जीव भी।
आदमी से अन्तरिक्ष नहीं बचा। वहाँ भी कचरा तैर रहा है।
आदमी से आदमी तक को तो बचा नहीं पाते हम लोग। लड़कियों औरतों की बात तो ख़ैर जाने ही दीजिए।
* * * * * * * * *
मगर हालात अभी भी ऐसे नहीं कि लाचार हो कर बैठ जाया जाए।
असली दिक्कत इसी बात की है कि बाघ ख़ुद भी तो बचने को तैयार हों। लगता है ख़ुद ही बचना नहीं चाहते ये बाघ।
आदमी के साथ-साथ रहने का सबसे आसान उपाय बताया था – दुम हिलाना सीख लो। अब बाघ हैं कि दुम हिलाने को राज़ी ही नहीं। दुम हिलाते भी हैं तो बड़े आराम से, धीरे-धीरे और घात लगाते हुए। बाघ की दुम हिली, यानी झपटने को तैयार है बाघ।
सावधान! बाघ की दुम का हिलना कोई अच्छा शकुन नहीं आदमी के लिए।
* * * * * * * * *
मिट जाएँगे, पर दुम नहीं हिलाएँगे। यह भी ठीक है।
दुम हिलाने लगे तो बाघ थोड़ा ही रह जाएँगे वो! वही बन जाएँगे जो दुम हिलाने वाले कहलाते हैं।
और इसीलिए उन्हें दुम हिलाने की सलाह मंज़ूर नहीं।
पर यह दुम हिलाने की सलाह अगर उनकी समझ में आ जाती तो गिनती के ही क्यों बचते?
अब ऐसी भी क्या बाघियत? अब अगर यह बाघियत वाली बात हमारी समझ में आ जाती, तो हम ही कौन सा आदमी रह जाते? बाघ न बन जाते!
मगर तब कोई जनसंख्या-समस्या न होती आदमी को लेकर। गिनती के बचते 1411, या और कम। पर तब क्या बाघ या दूसरे जन्तु हमें बचा रहे होते?
* * * * * * * * *
कमज़ोर सबसे पहले धर्म-परिवर्तन, वफ़ादारी परिवर्तन, स्थान-परिवर्तन आदि करके अपने को जिलाए रखने की कोशिश में लगे रहे हैं। जो मज़बूत हैं उन्हीं के मिट जाने का ख़तरा नज़र आता है अक्सर। गधे और कुत्ते-बिल्ली को कोई ख़तरा नहीं है, ख़तरा बाघ-शेर वगैरह को है। बकरे-मुर्गे-बतख़ें-सूअर-भेड़ आदि नियमित व्यञ्जन-सूची का हिस्सा बनकर भी शान से अपनी जनसंख्या बरक़रार रखे हैं। पैदा होने से भी पहले - अण्डे को ही खा जाता है आदमी, मगर मिट जाने का कोई ख़तरा नहीं उन्हें।
बाघों को हमेशा ही ख़तरा रहा है।
अब तो आदमी भी उसे बचाने पर तुल गया है।
नेता भी। मीडिया भी। कोशिश जारी है कि ब्लॉगिए भी आस्तीन चढ़ा कर जुट जाएँ।
यानी इस बार कुछ ज़्यादा ही ख़तरा है बाघ को । मज़बूत जो हैं बाघ ।
"जब से वो बाग़बाँ हुए यारो!
सारे जंगल धुआँ हुए यारो!"
बस तालिबान और अल-क़ायदा या इण्डियन मुजाहिदीन और जुट जाएँ बचाने में…
* * * * * * * * *
वैसा ही एक ख़तरा हिन्दी को भी बताया जाता रहा है, कि अगर लचीलेपन को न अपनाया तो मिट जाने का ख़तरा है। तो अगर वाकई ख़तरा है तो ये ख़ुश होने की बात है कि हिन्दी भी मज़बूत है। और ये बात भी खुशी की है कि ब्लॉगरी का बड़ा अहम योगदान होगा इस मज़बूती को बनाए रखने और बढ़ाते जाने में।
हिन्दी को बहुत फलता-फूलता देखना है अभी हमारी ही पीढ़ी को, बल्कि हमसे पिछ्ली पीढ़ी भी देखेगी, मगर ये भी ज़रूरी है कि ख़ुशफ़हमियाँ और मुग़ालते पहचान कर उन्हें दूर करने की कोशिश करें हम हिन्दीभाषी, समय रहते।
हिन्दी का स्वर्ण-युग आने को है।
और शायद हिन्दुस्तान – हिन्दुस्तानियों का भी।
हिमान्शु मोहन
इब्तिदा=आग़ाज़=शुरूआत=पहल
दस बहाने : दिल ले जाने के
दस बहाने बेहद ज़रूरी होते हैं आम आदमी की ज़िंदगी में।
दिल ले जाने के लिए।
जैसे सात फेरे ज़रूरी होते हैं हिन्दू पद्धति से विवाह के लिए, सात वचनों के साथ।आप यकीन मानिए, अगर आप बहानेबाज़ी में यक़ीन नहीं रखते तो आप जीवन में और चाहे कुछ भी कर सकते हों, पर दिल नहीं ले जा सकते। हर बहाना दस प्रतिशत दिल ले जाने की गारण्टी नहीं देता। शुरूआती बहाने कुछ कम, बाद के कुछ ज़्यादा ही दिल ले जाते हैं।
बहानेबाज़ क्या-क्या ले जाते हैं, ये तो बाद में ही पता चलता है, मगर धीरे-धीरे अच्छा लगने लगता है और दिल का क्या, ये तो चीज़ ही है "जाने-वाली" -
दिल गया, तुमने लिया, हम क्या करें?
जाने वाली चीज़ का ग़म क्या करें !
दिल ले जाने के लिए।
जैसे सात फेरे ज़रूरी होते हैं हिन्दू पद्धति से विवाह के लिए, सात वचनों के साथ।आप यकीन मानिए, अगर आप बहानेबाज़ी में यक़ीन नहीं रखते तो आप जीवन में और चाहे कुछ भी कर सकते हों, पर दिल नहीं ले जा सकते। हर बहाना दस प्रतिशत दिल ले जाने की गारण्टी नहीं देता। शुरूआती बहाने कुछ कम, बाद के कुछ ज़्यादा ही दिल ले जाते हैं।
बहानेबाज़ क्या-क्या ले जाते हैं, ये तो बाद में ही पता चलता है, मगर धीरे-धीरे अच्छा लगने लगता है और दिल का क्या, ये तो चीज़ ही है "जाने-वाली" -
दिल गया, तुमने लिया, हम क्या करें?
जाने वाली चीज़ का ग़म क्या करें !
Subscribe to:
Posts (Atom)