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Friday, March 26, 2010

बाघ के बहाने (1411 ही बचे हैं, बस!)

1411 बचे हुए बाघों की दुहाई देकर कहा जा रहा है कि बाघों के बारे में कुछ भी कर के, मेल भेज कर, ब्लॉग लिख कर, फ़ोटोशूट में हिस्सा लेकर…आप सहयोग दे सकते हैं बाघों को बचाने में।
बचाना किससे है, पता ही है - आदमी से। अब आदमी से कौन किसको बचा सकता है ?
आदमी से जंगल नहीं बचे। न बचे जंगली।
पहाड़ नहीं बचे आदमी से। खोद डाले।
आदमी से सागर नहीं बचे। मछलियाँ मर रही हैं, कछुए मर रहे हैं। अन्य जल-जीव भी।
आदमी से अन्तरिक्ष नहीं बचा। वहाँ भी कचरा तैर रहा है।
आदमी से आदमी तक को तो बचा नहीं पाते हम लोग। लड़कियों औरतों की बात तो ख़ैर जाने ही दीजिए
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मगर हालात अभी भी ऐसे नहीं कि लाचार हो कर बैठ जाया जाए।
असली दिक्कत इसी बात की है कि बाघ ख़ुद भी तो बचने को तैयार हों। लगता है ख़ुद ही बचना नहीं चाहते ये बाघ।
आदमी के साथ-साथ रहने का सबसे आसान उपाय बताया था दुम हिलाना सीख लो। अब बाघ हैं कि दुम हिलाने को राज़ी ही नहीं। दुम हिलाते भी हैं तो बड़े आराम से, धीरे-धीरे और घात लगाते हुए। बाघ की दुम हिली, यानी झपटने को तैयार है बाघ।
सावधान! बाघ की दुम का हिलना कोई अच्छा शकुन नहीं आदमी के लिए।
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मिट जाएँगे, पर दुम नहीं हिलाएँगे। यह भी ठीक है।
दुम हिलाने लगे तो बाघ थोड़ा ही रह जाएँगे वो! वही बन जाएँगे जो दुम हिलाने वाले कहलाते हैं।
और इसीलिए उन्हें दुम हिलाने की सलाह मंज़ूर नहीं।
पर यह दुम हिलाने की सलाह अगर उनकी समझ में आ जाती तो गिनती के ही क्यों बचते?
अब ऐसी भी क्या बाघियत? अब अगर यह बाघियत वाली बात हमारी समझ में आ जाती, तो हम ही कौन सा आदमी रह जाते? बाघ न बन जाते!
मगर तब कोई जनसंख्या-समस्या न होती आदमी को लेकर। गिनती के बचते 1411, या और कम। पर तब क्या बाघ या दूसरे जन्तु हमें बचा रहे होते?
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कमज़ोर सबसे पहले धर्म-परिवर्तन, वफ़ादारी परिवर्तन, स्थान-परिवर्तन आदि करके अपने को जिलाए रखने की कोशिश में लगे रहे हैं। जो मज़बूत हैं उन्हीं के मिट जाने का ख़तरा नज़र आता है अक्सर। गधे और कुत्ते-बिल्ली को कोई ख़तरा नहीं है, ख़तरा बाघ-शेर वगैरह को है। बकरे-मुर्गे-बतख़ें-सूअर-भेड़ आदि नियमित व्यञ्जन-सूची का हिस्सा बनकर भी शान से अपनी जनसंख्या बरक़रार रखे हैं। पैदा होने से भी पहले - अण्डे को ही खा जाता है आदमी, मगर मिट जाने का कोई ख़तरा नहीं उन्हें।
बाघों को हमेशा ही ख़तरा रहा है।
अब तो आदमी भी उसे बचाने पर तुल गया है। 
नेता भी। मीडिया भी। कोशिश जारी है कि ब्लॉगिए भी आस्तीन चढ़ा कर जुट जाएँ। 
यानी इस बार कुछ ज़्यादा ही ख़तरा है बाघ को । मज़बूत जो हैं बाघ ।


"जब से वो बाग़बाँ हुए यारो!
सारे जंगल धुआँ हुए यारो!" 

बस तालिबान और अल-क़ायदा या इण्डियन मुजाहिदीन और जुट जाएँ बचाने में… 
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वैसा ही एक ख़तरा हिन्दी को भी बताया जाता रहा है, कि अगर लचीलेपन को न अपनाया तो मिट जाने का ख़तरा है। तो अगर वाकई ख़तरा है तो ये ख़ुश होने की बात है कि हिन्दी भी मज़बूत है। और ये बात भी खुशी की है कि ब्लॉगरी का बड़ा अहम योगदान होगा इस मज़बूती को बनाए रखने और बढ़ाते जाने में।
हिन्दी को बहुत फलता-फूलता देखना है अभी हमारी ही पीढ़ी को, बल्कि हमसे पिछ्ली पीढ़ी भी देखेगी, मगर ये भी ज़रूरी है कि ख़ुशफ़हमियाँ और मुग़ालते पहचान कर उन्हें दूर करने की कोशिश करें हम हिन्दीभाषी, समय रहते।
हिन्दी का स्वर्ण-युग आने को है।                
और शायद हिन्दुस्तान – हिन्दुस्तानियों का भी।


हिमान्शु मोहन
इब्तिदा=आग़ाज़=शुरूआत=पहल

2 comments:

  1. Bahut is andolankari lekh hai, ye tamacha hai dogle samajh par...

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  2. hello sir, pahli baar hamare blog par aaye, rachnaaye pasand aai. shukriya. aapka blog pada.... ekdam hakikat se ru-bru... kathor sach se samna ho gaya....prabhavit hua bina na rah sake.....

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