बहानेबाज़ी की भी कोई हद होती है? या गिनती होती है? अभी तो दस कहा है, देखिए कितने बहाने सामने आते हैं
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Wednesday, July 21, 2010
यादें : बचपन (1)
बचपन में यह गाना ख़ूब सुनाई पड़ता था मेले-ठेले में। इलाहाबाद में - दशहरे के मेले में - रामदल की चौकियाँ निकलते समय, कानपुर में - दशहरे पर, चौपही के मेले में -सावन के मेले में - होली पर, मेरठ में दीवाली पर और इटावा में नुमाइश के वक़्त। अलीगढ़ में भी नुमाइश का ही हिस्सा होता था ये गाना। लगता है अपनी छेड़ के कारण यह काफ़ी समय तक शोहदों का - और इसलिए भीड़ का पसंदीदा गाना बना रहा। पसन्द और भी नौजवान होते या हो चले या हो चुके दिलों को आता था, मगर अपनी शराफ़त के लिबास में सल्वटें न पड़ने देने की ख़्वाहिश में ताब न थी क़बूल करने की लोगों को। हमें क्या - हम तो माने भी ठीक से नहीं समझते थे गाने का - और बच्चे थे ही - सो गाते थे (गाते क्या - चिल्लाते थे) और पिट जाते थे।
जब भूल जाते थे पिटाई - तो फिर चिल्लाने लगते थे - मैंने इक लड़की पसन्द कर ली।
मिज़ाज अपना लड़कपन से आशिक़ाना था।
पहला गाना जो हमारे लबों पे सजा - वो था - "मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू"
उसे पहले ही प्रायोगिक तौर पर नीचे चिपका चुके हैं।
फिल्म वगैरह देखने का चलन कम था तब। रेडियो पर भी सिर्फ़ ख़बरें सुनी जाती थीं। आस-पड़ोस के लोग इकट्ठा होते थे पौने नौ बजे-समाचार सुनने - देवकीनन्दन पाण्डेय से या और भी बहुत से नाम रहे होंगे।
रेडियो के तिलिस्म पर फिर कभी…
हमने ये गाना "मेरे सपनों की रानी…" पहली बार सुना जब फ़िल्म देखी - अपने मामाजी के साथ - कानपुर के हरकोर्ट बटलर…यानी एचबीटीआई में। ज़ाहिर है कि फ़िल्म तब तक इस लायक़ हो चुकी थी कि सिनेमा-घरों से उतरा हुआ प्रिण्ट मिल जाए - कॉलेजों के हॉस्टेलों और ऑडिटोरियमों में चलाने के लिए - उन कॉलेजों की सीमित धनराशि में। यानी फ़िल्म पुरानी हो चली होगी - मगर हमारे लिए पहला अनुभव था। लौटे तो - बस लहट गए राजेश खन्ना के ऊपर। बाद में जान पाए कि हम लहटे थे किशोरकुमार पर, समझ रहे थे कि राजेश खन्ना ही हैं - क्योंकि देखने में तो यही लगता था न कि वही गा रहे हैं!
बस ऐसे ही रपट गए मेले में ये गाना सुनकर - घर पर जब मौक़ा मिले - यही गाना गाने - सॉरी, चिल्लाने लगते थे और ख़ूब पिटे - बार-बार पिटे, मगर अब तक नहीं भूले कि क्या मस्त गाना था ये! अब भी कहीं सुनाई दे जाय तो रपट जाते हैं। अब यूट्यूब से लिंक दिया है - कॉपीराइट वगैरह का पता नहीं - मगर क्या है - थोड़ा और पीट ले जिसे कुछ नागवार गुज़रे - हम तो भैया रपटे - और अब चिल्लाएँगे ज़रूर।
रपटना है? तो आइए…क्लिक कर के देख-सुन लीजिए।
Location:
Allahabad, Uttar Pradesh, India
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Beautiful song. Thanks for sharing with us.
ReplyDeletemast hai hujoor ....
ReplyDelete:-)
ReplyDeleteएकदम्मे झम्मन
अब ये तो झक्कास आप लोगों को लगा ही होगा और पिटाई भी खाई ही होगी. हम क्या कहें इसके लिए.
ReplyDeleteआपके लिए??? वाह मार खाना पर गाना नही छोडना. क्या केन उम्र ही ऐसी थी जिसमे यही सुनना अच्छा लगता ही.
हिमांशु! आप कायस्थ हैं?
माँ को इस उम्र में भी गाने का शौक आप को भी इतना शौक.जरुर गा भी लेते होंगे.
यूँ कहते हैं गीत संगीत की देवी कायस्थों के घर एक बार गई और वहीं की हो कर रह गई.आज भी वहीं विराजती है.