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Thursday, August 26, 2010

बाबुल और नैहर की यादें

बिटिया की विदाई एक ऐसा भावुकता भरा क्षण है जो हमारे देस-गाँव की थाती से उमड़ कर हिन्दी फ़िल्मों पर झक्काझोर बरसता रहा है - बरसती आँखों की तरह। इस सावन-भादों बरसात का गहरा रिश्ता जुड़ चुका है दिल से। सावन में वैसे भी बिटियों को झूलों की पेंगे याद दिला जाती हैं मायके की, सखियों की और बाबुल की। सावन की फ़ुहार से हरियाली के साथ ही साथ कुछ ऐसा उगने लगता है मन में - जो बाबुल-बाबुल पुकारता है। मेरी बेटी अभी पढ़ रही है, मगर सावन अब मुझे भी बेचैन करने लगा है - उसके "अपने" घर जाने के बारे में सोचने का वक़्त हर बीतते बरस के साथ और क़रीब आता जा रहा है…

ऐसे में कुछ अपने पसन्दीदा फ़िल्मी गीत - हिन्दी फ़िल्मों से बटोर लाया हूँ यू-ट्यूब के सौजन्य से, और इन्हें आप सबसे साझा कर रहा हूँ। यह श्रृंखला गीतों की - आज मेरे 'मूड' में इसी गीत से शुरू हुई थी, सो सबसे पहले देखिए यह श्वेत-श्याम गीत - सावन की टीस और आशाएँ - एक बिटिया की ज़बानी…


फिर याद आई ये बात कि बेटी कैसे बाबुल से अपना लगाव ज़ाहिर करती है - उसे पुकारते हुए भी…


और उसे ढाढ़स बँधाते हुए भी - कि पिता उसके बारे में इतना चिन्तित न हों - मगर पिता को ढाढ़स मिल पाता है क्या?


बाबुल तो सिर्फ़ दुआ ही करता रहता है - दिन-रात, सोते-जागते, हर साँस के साथ-साथ…


वहीं दूसरी तरफ़ यह शादी-ब्याह का अवसर एक मांगलिक उत्सव होता है - सो सारे घरवाले इसमें शामिल होते हैं - अपनी-अपनी दुआओं और हसरतों-हौसलों के साथ - कि शादी में ये करेंगे-वो करेंगे -ऐसे सजाएँगे घर को-दुल्हन को - ये-ये भेंट देंगे…

और भाई का तो बहुत ज़्यादा लगाव होता भी है बहन से- क्योंकि उसे भी छोटा बाबुल ही समझिए - सारी ज़िम्मेदारियाँ जब उठाता है बेटा अपने पिता की - तो साथ ही बहन के मायके से रिश्ते की भी डोर वही थामता है…


बिटिया-बहन ऐसे में कुछ सपने भी सजाती है - और दर्द भी सहेजती है…


बहन को भाई ही ये समझाता भी है कि…


उधर बिटिया भी यह तो जानती ही है कि उसे "अपने" घर जाना ही है - रीत जो है समाज की - तो उसके भी दिल में सपने बुने जाने लगते हैं और छाने लगता है रूमान। अब ऐसे में अगर कोई जाना-पहचाना हो - जिससे कुछ लगाव हो जाए तो शायद मायके से जाने में कुछ आसानी रहे…


मगर कभी-कभार यूँ भी होता है कि अनजाने सपनों के राजकुमार का सपना देखती आँखें आस-पास के हमदर्दों को नज़रअन्दाज़ कर बैठती हैं - उनके लगाव और उनके अपनेपन के साथ-साथ। उम्मीदों भरे सपने सँजोती पलकें अपनी आशाओं को उनसे बाँटती ज़रूर हैं - मगर उनकी कसक - उनका लगाव पहचाने बिना ही। ऐसे में ही संवेदनशीलता की चूक होती है और फिर तो यह बात यहाँ तक बढ़ जाती है कि अपने नए सफ़र पर निकलने से पहले बचपन के दोस्तों को यह ताक़ीद की जाती है कि…


कभी ये भी कह उठती हैं बेटियाँ कि…


मगर अक्सर तो सखी-सहेलियों से भी मायका छोड़ने की बातें बड़े उत्साह से और ख़ुशी से होती हैं कि देखो अब यह मौक़ा भी आने ही वाला है…


नई-नई ख़ुशियों के बीच अगर बेटी के दुल्हन बनने के बाद उसका जीवन हँसी-ख़ुशी बीते तो कहना ही क्या! और अगर बेटी के मुँह से निकली ऐसी बातें सुनने को मिलें किसी संदेशवाहक की ज़बानी या नाते-रिश्तेदारों से कि…


तब तो बड़ा ही सुकून मिलता है माँ-बाप को।

मगर यह तो बाद की बात है न! पहले तो बारात आती है - बड़े उत्साह के साथ और डोली लाती है। जहाँ एक तरफ़ डोली दिलों में हलचल मचाती है…


और यूँ भी…

फिर शादी तो बहुत व्यस्तता और ख़ुशियों में बीत जाती है - सिर्फ़ चन्द घण्टों में बेटी पराई हो जाती है। जिस अवसर की तैयारी महीनों - बल्कि मानसिक तौर पर और अक्सर आर्थिक तौर पर भी - बरसों की जाती है, वह बीतता है चन्द घण्टों में और फिर कुछ रस्में…


और फिर कुछ ही देर में डोली…


और तब ज़रूर बड़ी शिद्दत से अहसास होता है लड़कियों को - कि अब…


और फिर आता है मौक़ा विदाई का…
चाहे कितना ही हूक उठे कलेजे में - कितना ही हिलक लो - सिसक लो - आख़िर तो सजन घर जाना ही है!


और सजन घर जाना है तो उसमें एक दर्द है - तो एक ख़ुशी भी है…


फिर तो कुछ भी हो - अब नए रिश्ते जुड़े हैं - जो निभाने भी हैं और सहेजने भी - मगर तसल्ली सिर्फ़ यही होती है कि नए रिश्ते जुड़ने का मतलब यह नहीं कि पुराने टूट गए। पुराने तो हैं ही अपने साथ, बीरन भी और बाबुल भी!

ये सब हालात भले ही फ़िल्मी होने से थोड़ा अतिरंजित दिख रहे हों - सच यही है कि वास्तविक निजी हक़ीक़त भी कभी ऐसी होती ज़रूर थी, अब भी होती है - मगर सिर्फ़ आत्मीय जनों के लिए। बदलते वक़्त की व्यस्तताओं की भेंट चढ़ चुके इस दौर के ज़्यादातर रिश्ते काग़ज़ी हैं - वक़्त की कमी के मोहताज - जहाँ आँसू बहाना असंस्कृत होना समझा जाने लगा है - शादियाँ भी "डिज़ाइनर" व "कस्टमाइज़्ड" और "थीम बेस्ड" होने लगी हैं। आपको किस पोशाक़ में आना है - यह भी निर्देशित रहता है - तो इसीलिए इन हालात का वीडियो अगर बाद में देखा जाय - ख़ासकर उत्तर प्रदेश के पूर्वाञ्चल में तो राजू श्रीवास्तव का नज़रिया बहुत हद तक सही मालूम पड़ता है…


विदा का माहौल तो हमेशा ही भारी ही होता है, और अब इस पोस्ट से विदा लेने का भी वक़्त आ गया है, तो बाद में ये भारी माहौल न तारी रहे ज़ेहन पर - इसीलिए हल्के मन से प्रसन्न हो कर विदा लें, ऐसी कामना फलित करने में राजू श्रीवास्तव जी के इस वीडियो ने सहयोग किया।
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यूट्यूब और यूट्यूब पर सभी संबन्धित वीडियो अपलोड करने वालों के प्रति आभार सहित, सादर-सस्नेह!

Barbaad-e-Mohabbat Ki Dua - MOHD RAFI

pag pag liye jau

Monday, August 23, 2010

तुम अगर साथ देने का वादा करो…उम्दा लिरिक्स

बचपन में सुना था - आज भी बेहद ताज़गी भरा रूमानी गीत लगता है ये - बस सुनाई कम देता है।

Monday, August 16, 2010

तेरे घर आया - मैं आया तुझको लेने

सलमान की ताज़गी भरी सुखद अतिथि भूमिका थी इस केकेएचएच में।
सभी सितारों के अपने-अपने कुछ ख़ास मूवमेण्ट्स हैं - जिन्हें करना उन्हें आसान लगता होगा शायद। इस गीत में वो मूव्स किए हैं सलमान ने जो उनके ट्रेड-मार्क नहीं थे, बल्कि शाहरुख़ के मूव्ज़ से ज़्यादा मिलते-जुलते हैं - जिनमें पैरों को झुलाने के प्रयोग अधिक होते हैं।
आगे चलकर इससे मिलते जुलते मूव्ज़ अपनाए सलमान ने भी - और अभी भी अपने कई गानों में उन्हें इन मूव्ज़ पर नाचते देखा जा सकता है।
ख़ैर, यहाँ तो सिर्फ़ यह कहना है कि पूरे कपड़ों में सलमान को नाचते देखना एक अलग तरह का सुखद अनुभव है।
;)
नहीं?

Saturday, August 14, 2010

ओ माँझी रे....!

गुलज़ार - किशोर - आरडीबर्मन
एक और जादुई गीत मेरी पसंद का...

Wednesday, August 11, 2010

आइगा-आइगा, आइगा ये क्या हो गया…!

श्वेत-श्याम चित्रपट के दौर से ही एक खिलन्दड़ा गीत - ब्वायफ़्रेण्ड फ़िल्म से - शम्मी कपूर के खिलन्दड़ेपन भरी मस्ती और मधुबाला की चंचलता में डूबी सुन्दरता के साथ …

जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला...

तो आज इस दुर्लभ संगीतमय प्रस्तुति का मज़ा लीजिए - ये तब की बात है जब फ़िल्मी गानों में साहित्य हुआ करता था और फिल्मों में आत्मा. अभी भी होता है - मगर सबमें नहीं, और इस बात पर मैं शाहरुख खान से सहमत हूं.


Monday, August 2, 2010

आजा तुझको पुकारे मेरे गीत रे…(गीत)

राजेन्द्र कुमार - जुबिली की श्रृंखला में से एक संगीतमय याद…